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Sunday, 18 December 2011

तुम भरमाए से लगते हो...।

मेरी उंगली नुची हुई पर तार छेड़ता हूँ वीणा के
तुमने बस पीड़ा को देखा औ’ बौराए से लगते हो..।

पीड़ाओं के हर अरण्य में, मैं फिरता हूँ निपट अकेला
दुख की परिभाषा तक पहुँचे,तुम घबराए से लगते हो..।

जन्म-जन्म से पदाक्रांत मैं, मैंने उठना अभी न छोड़ा
ठोकर एक लगी जो तुमको, बस गिर आए से लगते हो..।

जीवन भर मैं रहा बाँटता, उजियारा तम को पी-पी कर,
एक अँधेरी निशा मिली तो, तुम सँवलाए से लगते हो..।

प्रखर भानु की अग्नि- रश्मियाँ मैंने झेलीं खुली देह पर
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो..।

दुविधाओं के प्रश्न अनुत्तर, कितने हल कर डाले मैंने,
पथ चुनने की इस बेला में, तुम भरमाए से लगते हो..।

- दिनेश गौतम

3 comments:

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया said...

दुविधाओं के प्रश्न अनुत्तर, कितने हल कर डाले मैंने,
पथ चुनने की इस बेला में, तुम भरमाए से लगते हो..
लाजबाब प्रस्तुति,....

RECENT POST...काव्यान्जलि ...: यदि मै तुमसे कहूँ.....
RECENT POST...फुहार....: रूप तुम्हारा...

ANULATA RAJ NAIR said...

सुंदर.....बहुत सुंदर ...............

बधाई इस उत्कृष्ट रचना के लिए.

सादर.

Saras said...

प्रखर भानु की अग्नि- रश्मियाँ मैंने झेलीं खुली देह पर
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो..।
...दिनेश जी वैसे तो पूरी रचना ही बहुत मर्मस्पर्शी है ..लेकिन यह पंक्तियाँ ख़ास तौर पर छू गयीं ....बहुत ही सुन्दर ...बधाई !