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Wednesday, 7 December 2011

भीगा सा मन है...


भीगा सा मन है और आँखें भी नम...
जले हुए रिश्तों में
अब केवल राख है,
झुलस गया मन पंछी
जली हुई पाँख है।
उजड़ गए नीड़ में, तिनके भी कम...

बर्फीले अंधड़ में
झरे हुए पात हैं,
बिरवे की एक डाल
और कई घात हैं।
हत्यारी ऋतुएँ हैं, निष्ठुर मौसम...

लू के किस जंगल में
भटक गई  छाँव है,
तपी हुई धरती पर
थके-थके पाँव हैं।
होता भी नहीं कहीं,  मंजिल का भ्रम...

चंदा की देह पर
मावस के दंश हैं,
घायल हो पड़े हुए
सपनों के हंस हैं।
अर्थहीन लगता है, साँसों का क्रम...

टूट गई पतवारें
और उद्दण्ड झोंका है,
चढ़ी हुई नदिया में
बेबस सी नौका है
सफल कहाँ हो पाए, माझी का श्रम...

                                                - दिनेश गौतम

2 comments:

dinesh gautam said...

मेरे प्रथम काव्य संग्रह ‘सपनों के हंस’ का शीर्षक गीत आज आपकी सेवा में प्रस्तुत है...भीगा सा मन है...

महेन्‍द्र वर्मा said...

लू के किस जंगल में
भटक गई छाँव है,
तपी हुई धरती पर
थके-थके पाँव हैं।
होता भी नहीं कहीं, मंजिल का भ्रम...

बहुत सुंदर...!
शब्द मानो दृश्य में अनूदित हो गए हैं।