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Saturday, 10 December 2011


मर-मर कर जीने की कैसी लाचारी?
छोटे से इस दिल को मिले दर्द भारी।

धुँधले से दिन हैं अब
काली है रातें,
अंगारे दे गई हैं
अब की बरसातें।
आँगन में गाजों का गिरना है जारी.......।

मन की इस बगिया में
झरे हुए फूल हैं,
कलियों से बिंधे हुए
निष्ठुर से शूल हैं।
मुरझाई लगती है सपनों की क्यारी...।

नई-नई पोथी के
पृष्ठ कई जर्जर हैं,
तार-तार सप्तक हैं,
थके-थके से स्वर हैं।
बस गई हैं तानों में,पीड़ाएँ सारी...।

दूर तक मरुस्थल की
फैली वीरानी है,
मन के मृगछौने के
सपनों में पानी है।
भटक रही हिरनी भी तृष्णा की मारी...।

रतिया की सिसकी है,
दिवस की व्यथाएँ हैं,
ठगे हुए सपनों की
अनगिन कथाएँ हैं।
दुनिया में जीने की, इतनी तैयारी...।
                                                     
                                                   




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