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Sunday, 18 December 2011


मेरी उंगली नुची हुई पर तार छेड़ता हूँ वीणा के
तुमने बस पीड़ा को देखा औ‘  बौराए से लगते हो..।

पीड़ाओं के हर अरण्य में, मैं फिरता हूँ निपट अकेला
दुख की परिभाषा तक पहुँचे,तुम घबराए से लगते हो..।

जन्म-जन्म से पदाक्रांत मैं, मैंने उठना अभी न छोड़ा
ठोकर एक लगी जो तुमको, बस गिर आए से लगते हो..।

जीवन भर मैं रहा बाँटता, उजियारा तम को पी-पी कर,
एक अँधेरी निशा मिली तो, तुम सँवलाए से लगते हो..।

प्रखर भानु की अग्नि- रश्मियाँ मैंने झेलीं खुली देह पर
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो..।

दुविधाओं के प्रश्न अनुत्तर, कितने हल कर डाले मैंने,
पथ चुनने की इस बेला में, तुम भरमाए से लगते हो..।
                                                                      - दिनेश गौतम

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