Total Pageviews

Sunday 16 September 2012

ग़ज़ल


बस इसलिए कि उससे कोई वास्ता नहीं है,
तू हादसे को कहता है हादसा नहीं है।

होती ही जा रही है दिल की दरार गहरी,
इस बात का तुझे क्या कोई पता नहीं है?

इंसानियत से इंसाँ, बनता है देवता भी,
इंसान जो नहीं है, वह देवता नहीं है।

लाखों में एक भी तू, ऐसा मुझे दिखा दे,
अनजान हो जो दुख से, ग़म से भरा नहीं है।

माना कि उससे मेरी कुछ दूरियाँ बढ़ी हैं,
पर दिल ये कह रहा है, वो बेवफा नहीं है।

मुझको न इतना तड़पा, नज़रें न फेर मुझसे,
माना भला नहीं पर, ये दिल बुरा नहीं है।

तेरी भी मैली चादर, मेरी भी मैली चादर,
इस दाग़ से यहाँ पर, कोई बचा नहीं है।

                                 दिनेश गौतम

Sunday 2 September 2012

बेलूर...

(विगत दिनों अपने कर्नाटक प्रवास के दौरान मुझे ऐतिहासिक स्थल ‘बेलूर‘ के ‘चन्नकेशवा’ मंदिर जाने का अवसर लगा। होयसल सम्राट विष्णुवर्धन द्वारा निर्मित इस मंदिर में अपूर्व सुंदरी रानी शांतला (जो प्रसिद्ध नृत्यांगना थी) तथा अन्य सुंदर नर्तकियों की जीवंत प्रतिमाएं मन को मोह लेती हैं। मंदिर पर लिखी मेरी एक कविता आपके लिए प्रस्तुत है।)

वर्तमान के वक्ष पर
अतीत की धड़कन है बेलूर,
विलक्षण हो तुम
चन
्नकेशवा !

अतीत की
सुनहरी स्मृतियों के सहारे
उतर आते हो तुम
आँखों के रास्ते
मन की गहराइयों तक...

सदियों पुरानी
दीवारों पर
जड़ी हुई हैं
प्रतिमाएँ,
जैसे मार दिया हो मंतर
किसी जादूगर ने
और नृत्यांगनाएँ
बदल गई हों
प्रस्तर-प्रतिमाओं में।

अतीत की सीढि़यों पर
उतरते चले जाते हैं हम,
आँखों में उतर आती है
अपूर्व सुंदरी
रानी ‘शांतला’।

बजने लगते हैं घुंघरू,
मृदंग और वीणा,
शुरू हो जाता है
नृत्य-गान।
प्रांगण बदल जाता है
नृत्यशाला में।

हवाओं में
घुलने लगता है
सम्मोहन,
धड़कने लगते हैं
जाने कितने
विष्णुवर्धनों के हृदय।

नृत्यलीन है शांतला
नाच रही हो जैसे
स्वयं क्षणप्रभा,
कौंध रही है आँखों में
शांतला की द्युति।

देह का भूगोल
बढ़ा देता है ताप,
गोलाइयों, वक्रों
और
ढलानों से होकर
तय करने लगते हैं लोग
भूगोल से ज्यामिति तक की दूरियाँ
त्रिभंगी मुद्राएँ
सिखाती हैं
ज्यामिति के पाठ।
कई कोण बन रहे हैं
देह भंगिमाओं से।

इधर...
गुरुत्व का पाठ पढ़ाते
बिना किसी सहारे के खड़े
स्तंभ के पास खड़े हैं लोग
चकित है विज्ञान।

छूट जाता है सहसा
किसी सुंदरी के हाथ से दर्पण
उड़ जाता है
किसी शुकधारिणी के हाथों से शुक,
जब तन जाती हैं
किसी कमान की तरह
शांतला की भौंहें,
ठगे हुए से
रह जाते हैं सभी।

रूपगर्विता शांतला का
भृकुटि-विलास
ढहा देता है
जाने कितने विष्णुवर्धनों के हृदय।
गर्वान्नत भौंहें
चुनौतियाँ देती हैं
सौंदर्य के
सारे प्रतिमानों को।
शांतला की केशराशि में
उलझ कर रह जाते हैं
जाने कितने
सौण्दर्योपासक।

सुनो शांतला!
क्या पढ़े कोई
चन्नकेशवा में आकर?
भूगोल, इतिहास, विज्ञान
या सौण्दर्यशास्त्र ?
अप्रतिम हो तुम शांतला!
और
अद्भुत हो तुम
चन्नकेशवा!
सचमुच अद्भुत !!!
- दिनेश गौतम.