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Friday 30 December 2011

फिर से सावन आएगा...

ग़र जड़ों में हो नमी तो, फिर हरापन आएगा
तुम घटा की चाह रक्खो, फिर से सावन आएगा।

रेत है पैरों के नीचे, दूर तक मंजि़ल नहीं,
पर अगर चलते रहे तो एक उपवन आएगा।

झर चुके हैं पत्र सारे, डाल हर वीरान है,
पेड़ को पर आस है ये , फिर से यौवन आएगा।

होटलों की चाकरी औ बूट-पाॅलिश के लिए
आप कोई नाम ढूँढें, एक बचपन आएगा।

देह का घटिया प्रदर्शन, बेहयाई, नग्नता,
क्या कभी सोचा था हमने, ये खुलापन आएगा?

राजनीति के भँवर में फँस गए हैं हम यहाँ,
जो उबारेगा हमें फिर, क्या वो शासन आएगा?

कंस कितने हो गए , दुश्शासनों की क्या कमी,
पर न जाने पीर हरने, कब वो मोहन आएगा?

- दिनेश गौतम

Sunday 18 December 2011

तुम भरमाए से लगते हो...।

मेरी उंगली नुची हुई पर तार छेड़ता हूँ वीणा के
तुमने बस पीड़ा को देखा औ’ बौराए से लगते हो..।

पीड़ाओं के हर अरण्य में, मैं फिरता हूँ निपट अकेला
दुख की परिभाषा तक पहुँचे,तुम घबराए से लगते हो..।

जन्म-जन्म से पदाक्रांत मैं, मैंने उठना अभी न छोड़ा
ठोकर एक लगी जो तुमको, बस गिर आए से लगते हो..।

जीवन भर मैं रहा बाँटता, उजियारा तम को पी-पी कर,
एक अँधेरी निशा मिली तो, तुम सँवलाए से लगते हो..।

प्रखर भानु की अग्नि- रश्मियाँ मैंने झेलीं खुली देह पर
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो..।

दुविधाओं के प्रश्न अनुत्तर, कितने हल कर डाले मैंने,
पथ चुनने की इस बेला में, तुम भरमाए से लगते हो..।

- दिनेश गौतम

तुम भरमाए से लगते हो...।

मेरी उंगली नुची हुई पर तार छेड़ता हूँ वीणा के
तुमने बस पीड़ा को देखा औ’ बौराए से लगते हो..।

पीड़ाओं के हर अरण्य में, मैं फिरता हूँ निपट अकेला
दुख की परिभाषा तक पहुँचे,तुम घबराए से लगते हो..।

जन्म-जन्म से पदाक्रांत मैं, मैंने उठना अभी न छोड़ा
ठोकर एक लगी जो तुमको, बस गिर आए से लगते हो..।

जीवन भर मैं रहा बाँटता, उजियारा तम को पी-पी कर,
एक अँधेरी निशा मिली तो, तुम सँवलाए से लगते हो..।

प्रखर भानु की अग्नि- रश्मियाँ मैंने झेलीं खुली देह पर
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो..।

दुविधाओं के प्रश्न अनुत्तर, कितने हल कर डाले मैंने,
पथ चुनने की इस बेला में, तुम भरमाए से लगते हो..।

- दिनेश गौतम

मेरी उंगली नुची हुई पर तार छेड़ता हूँ वीणा के
तुमने बस पीड़ा को देखा औ‘  बौराए से लगते हो..।

पीड़ाओं के हर अरण्य में, मैं फिरता हूँ निपट अकेला
दुख की परिभाषा तक पहुँचे,तुम घबराए से लगते हो..।

जन्म-जन्म से पदाक्रांत मैं, मैंने उठना अभी न छोड़ा
ठोकर एक लगी जो तुमको, बस गिर आए से लगते हो..।

जीवन भर मैं रहा बाँटता, उजियारा तम को पी-पी कर,
एक अँधेरी निशा मिली तो, तुम सँवलाए से लगते हो..।

प्रखर भानु की अग्नि- रश्मियाँ मैंने झेलीं खुली देह पर
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो..।

दुविधाओं के प्रश्न अनुत्तर, कितने हल कर डाले मैंने,
पथ चुनने की इस बेला में, तुम भरमाए से लगते हो..।
                                                                      - दिनेश गौतम

Sunday 11 December 2011

कैसी लाचारी...


मर-मर कर जीने की कैसी लाचारी ?,
छोटे से इस दिल को मिले दर्द भारी...।

धुँधले से दिन हैं अब
काली है रातें ,
अंगारे दे गई हैं
अब की बरसातें,
आँगन में गाजों का,गिरना है जारी...।

मन की इस बगिया में
झरे हुए फूल हैं,
कलियों से बिंधे हुए
निष्ठुर से शूल हैं,
मुरझाई लगती है,सपनों की क्यारी...।

नई-नई पोथी के
पृ्ष्ठ कई जर्जर हैं,
तार-तार सप्तक हैं,
थके-थके से स्वर हैं,
बस गई हैं तानों में,पीड़ाएँ सारी...।

दूर तक मरुस्थल की
फैली वीरानी है,
मन के मृगछौने के
 सपनों में पानी है।
भटक रही हिरनी भी, तृष्णा की मारी...।

रतिया की सिसकी है,
दिवस की व्यथाएँ हैं,
ठगे हुए सपनों की
अनगिन कथाएँ हैं।
दुनिया में जीने की, इतनी तैयारी...।

                                                  - दिनेश गौतम

Saturday 10 December 2011


मर-मर कर जीने की कैसी लाचारी?
छोटे से इस दिल को मिले दर्द भारी।

धुँधले से दिन हैं अब
काली है रातें,
अंगारे दे गई हैं
अब की बरसातें।
आँगन में गाजों का गिरना है जारी.......।

मन की इस बगिया में
झरे हुए फूल हैं,
कलियों से बिंधे हुए
निष्ठुर से शूल हैं।
मुरझाई लगती है सपनों की क्यारी...।

नई-नई पोथी के
पृष्ठ कई जर्जर हैं,
तार-तार सप्तक हैं,
थके-थके से स्वर हैं।
बस गई हैं तानों में,पीड़ाएँ सारी...।

दूर तक मरुस्थल की
फैली वीरानी है,
मन के मृगछौने के
सपनों में पानी है।
भटक रही हिरनी भी तृष्णा की मारी...।

रतिया की सिसकी है,
दिवस की व्यथाएँ हैं,
ठगे हुए सपनों की
अनगिन कथाएँ हैं।
दुनिया में जीने की, इतनी तैयारी...।
                                                     
                                                   




Wednesday 7 December 2011

भीगा सा मन है...


भीगा सा मन है और आँखें भी नम...
जले हुए रिश्तों में
अब केवल राख है,
झुलस गया मन पंछी
जली हुई पाँख है।
उजड़ गए नीड़ में, तिनके भी कम...

बर्फीले अंधड़ में
झरे हुए पात हैं,
बिरवे की एक डाल
और कई घात हैं।
हत्यारी ऋतुएँ हैं, निष्ठुर मौसम...

लू के किस जंगल में
भटक गई  छाँव है,
तपी हुई धरती पर
थके-थके पाँव हैं।
होता भी नहीं कहीं,  मंजिल का भ्रम...

चंदा की देह पर
मावस के दंश हैं,
घायल हो पड़े हुए
सपनों के हंस हैं।
अर्थहीन लगता है, साँसों का क्रम...

टूट गई पतवारें
और उद्दण्ड झोंका है,
चढ़ी हुई नदिया में
बेबस सी नौका है
सफल कहाँ हो पाए, माझी का श्रम...

                                                - दिनेश गौतम

Tuesday 6 December 2011

मेरे नयनों का दोष यही...



(मेरे प्रथम काव्य संग्रह ‘सपनों के हंस’ से एक गीत प्रस्तुत है... )

मेरे नयनों का दोष यही
कि उनमें तुम्हें बसाया है।...

जब-जब मैंने तृप्ति तलाशी
मुझको केवल प्यास मिली,
सुख को ढूँढ़-ढूँढ़ हारा पर
सुख की केवल लाश मिली।
मेरी खोजों का दोष यही कि
सब कुछ मिला पराया है।.

अनचाही पीड़ा से मेरे
युग -युग के अनुबंध हुए
कई जन्म की प्यासी रातों
से मेरे सम्बंध हुए
मेरे रिश्तों का दोष यही
कि  सब कुछ मिला पराया है।...

जीवन के हर एक पड़ाव पर
मुझको नई थकान मिली
जले हुए से होंठ मिले औ’
बेबस सी मुस्कान मिली ।
मेरी खुशियों का दोष यही
कि उन पर दुख का साया है।...

मैं पतझर को रहा समेटे,
सब फागुन के मीत बने,
मेरी इकलौती करुणा से
बस पीड़ा के गीत बने।
मेरे गीतों का दोष यही
कि उनमें दर्द समाया है।...
       
                                          - दिनेश गौतम