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Sunday, 18 December 2011

तुम भरमाए से लगते हो...।

मेरी उंगली नुची हुई पर तार छेड़ता हूँ वीणा के
तुमने बस पीड़ा को देखा औ’ बौराए से लगते हो..।

पीड़ाओं के हर अरण्य में, मैं फिरता हूँ निपट अकेला
दुख की परिभाषा तक पहुँचे,तुम घबराए से लगते हो..।

जन्म-जन्म से पदाक्रांत मैं, मैंने उठना अभी न छोड़ा
ठोकर एक लगी जो तुमको, बस गिर आए से लगते हो..।

जीवन भर मैं रहा बाँटता, उजियारा तम को पी-पी कर,
एक अँधेरी निशा मिली तो, तुम सँवलाए से लगते हो..।

प्रखर भानु की अग्नि- रश्मियाँ मैंने झेलीं खुली देह पर
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो..।

दुविधाओं के प्रश्न अनुत्तर, कितने हल कर डाले मैंने,
पथ चुनने की इस बेला में, तुम भरमाए से लगते हो..।

- दिनेश गौतम

5 comments:

36solutions said...

धन्‍यवाद भईया अब आपकी कविताओं से हम भी रूबरू हो पायेंगें.

http://hamarchhattisgarh.blogspot.com

महेन्‍द्र वर्मा said...

प्रखर भानु की अग्नि- रश्मियाँ मैंने झेलीं खुली देह पर
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो..।

वाह,वाह...!
लगता है, शब्द स्वयं बोल रहे हैं।

Sonroopa Vishal said...

प्रखर भानु की अग्नि- रश्मियाँ मैंने झेलीं खुली देह पर
थोड़ी ऊष्मा तुम्हें छू गई, तो कुम्हलाए से लगते हो..।
बेहद सुंदर पंक्तियाँ हैं !

prashant shrivastava said...

hello

prashant shrivastava said...

nuchi hui unglio se jeevan ki veena ke tar chhedna kathin kam he. jo yeh kar leta he use he akshar chetna shatrughan pande samman milta he.