मेरे काव्य ‘संग्रह सपनों के हंस’ से एक गीत आज आपकी सेवा में प्रस्तुत है।
मर-मर कर जीने की कैसी लाचारी ?,
छोटे से इस दिल को मिले दर्द भारी...।
धुँधले से दिन हैं अब
काली है रातें ,
अंगारे दे गई हैं
अब की बरसातें,
आँगन में गाजों का,गिरना है जारी...।
मन की इस बगिया में
झरे हुए फूल हैं,
कलियों से बिंधे हुए
निष्ठुर से शूल हैं,
मुरझाई लगती है,सपनों की क्यारी...।
नई-नई पोथी के
पृ्ष्ठ कई जर्जर हैं,
तार-तार सप्तक हैं,
थके-थके से स्वर हैं,
बस गई हैं तानों में,पीड़ाएँ सारी...।
दूर तक मरुस्थल की
फैली वीरानी है,
मन के मृगछौने के
सपनों में पानी है।
भटक रही हिरनी भी, तृष्णा की मारी...।
रतिया की सिसकी है,
दिवस की व्यथाएँ हैं,
ठगे हुए सपनों की
अनगिन कथाएँ हैं।
दुनिया में जीने की, इतनी तैयारी...।
- दिनेश गौतम
13 comments:
नई-नई पोथी के
पृ्ष्ठ कई जर्जर हैं,
तार-तार सप्तक हैं,
थके-थके से स्वर हैं,
बस गई हैं तानों में,पीड़ाएँ सारी...।बहुत ही गहन
सुंदर गीत है। वेदना से भरपूर..
वाह..............
बहुत ही सुन्दर गीत....
भावों से लबालब भरा....
सादर.
बहुत ही सुन्दर,,,गहन भाव अभिव्यक्ति है....
बहुत बढ़िया प्रस्तुति....
रतिया की सिसकी है,
दिवस की व्यथाएँ हैं,
ठगे हुए सपनों की
अनगिन कथाएँ हैं।
दुनिया में जीने की, इतनी तैयारी..
वेदना की पुकार है ... ये गीत की झंकार ...
बहुत खूब ...
बहुत सुंदर गीत है. भावों की रागात्मकता के साथ सहज संप्रेषणीय अभिव्यक्ति इसे बेजोड़ बनाती है. आपको हार्दिक बधाई. बहुत सुंदर पंक्तियाँ हैं-
"रतिया की सिसकी है,
दिवस की व्यथाएँ हैं,
ठगे हुए सपनों की
अनगिन कथाएँ हैं।
दुनिया में जीने की, इतनी तैयारी...।"
नई-नई पोथी के
पृ्ष्ठ कई जर्जर हैं,
तार-तार सप्तक हैं,
थके-थके से स्वर हैं,
बस गई हैं तानों में,पीड़ाएँ सारी...।
दर्द उलीनचती प्रस्तुति ...सुन्दर !
नई-नई पोथी के
पृ्ष्ठ कई जर्जर हैं,
तार-तार सप्तक हैं,
थके-थके से स्वर हैं,
बस गई हैं तानों में,पीड़ाएँ सारी...।
उम्दा रचना .. !!
दूर तक मरुस्थल की
फैली वीरानी है,
मन के मृगछौने के
सपनों में पानी है।
भटक रही हिरनी भी, तृष्णा की मारी...।
bahut sunder
badhai
जीवन से जुडी गहन वेदना ...
सुंदर अभिव्यक्ति ...
शुभकामनायें ...!
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति । धन्यवाद ।
सुन्दर अहसासों से लबरेज़ कविता
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