याद के शीशे में चेहरा, तेरा ही ढलता रहा,
मैं कि जैसे पाँव नंगे, आग पर चलता रहा।
जानता था वह नहीं आएगा फिर से लौटकर,
फिर भी झूठी आस लेकर, खुद को मैं छलता रहा।
तेरी यादों ने बनाया इक अजब सा कारवाँ,
जब खयालों का मेरे इक काफिला चलता रहा।
यूँ तो टूटा ही किए थे ख़्वाब मेरे फिर भला,
एक सपना तुझको लेकर , दिल में क्यूँ पलता रहा?
रोक पाया वह न मुझको, उसको है इसका मलाल,
आँसुओं के घूँट पीकर हाथ बस मलता रहा।
मानता हूँ तेरे बँगले में ग़ज़ब थी रौशनी,
पर मेरे आँगन में भी तो, इक दिया जलता रहा।
- दिनेश गौतम
11 comments:
मानता हूँ तेरे बँगले में ग़ज़ब थी रौशनी,
पर मेरे आँगन में भी तो,इक दिया जलता रहा।
सुंदर अभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना,...दिनेश जी
MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: कवि,...
धन्यवाद धीरेन्द्र जी!
सुन्दर प्रस्तुति |
आभार ||
शुभकामनाये ||
मानता हूँ तेरे बँगले में ग़ज़ब थी रौशनी,
पर मेरे आँगन में भी तो,इक दिया जलता रहा
वाह..दिनेश जी बेहतरीन रचना...
नीरज
धन्यवाद रविकर जी, नीरज जी, आभार आप दोनों का। इसी तरह आते रहिए।
behatariin rachana.
यूँ तो टूटा ही किए थे ख़्वाब मेरे फिर भला,
एक सपना तुझको लेकर , दिल में क्यूँ पलता रहा?
Bahut khoob ... Chahe toote khwaab ... Dil to fir Bhi dekhna hi hai ... Lajawab sher hain sabhi ..
आंगन का दिया ऐसे ही जलता रहे।
बहुत प्यारी ग़ज़ल।
आखिरी शेर बहुत असरदार.. बधाई
मानता हूँ तेरे बँगले में ग़ज़ब थी रौशनी,
पर मेरे आँगन में भी तो,इक दिया जलता रहा
वाह ...अनुपम भाव संजोये हुए यह पंक्तियां ।
मानता हूँ तेरे बँगले में ग़ज़ब थी रौशनी,
पर मेरे आँगन में भी तो,इक दिया जलता रहा
बेहतरीन भाव संयोजन
सुन्दर रचना.....
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