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Wednesday, 8 March 2023

गीत- एक सजीला फागुन है..

एक सजीला फागुन है और दूजी याद तुम्हारी

दोनों ने मिल कर मारी है, मन पर चोट करारी।


आहत मन को चैन दिलाए,

ढाढ़स कौन बँधाए

रातें लंबी हो जाएँ तो,

कौन संग में गाए ?

विरही गीतों की तानें जब,  ख़ूब चलाए आरी...


अटका रहा पलाश की टहनी,

फागुन द्वार न आया,

पल-पल जिनको याद किया,

उन सबने  मिल बिसराया।

कहाँ गई वे मीठी यादें, वे मधु - ऋतुएँ सारी...


अंगारों-से दहके टेसू,

जब-जब  टेसू-वन में,

तब-तब आग लगाए बिरहा

मेरे प्रेमिल मन में।

करवट लेते जाग-जाग कर  रातें रोज़ गुज़ारी ...


नदी किनारे प्यासा बिरवा,

 कौन भला ये माने?

 बीत रही हो जो ख़ुद पर वह

ख़ुद ही तो बस जाने।

दुख खरीदकर सुख दे ऐसा  मिला नहीं व्यापारी ...



   






Monday, 3 August 2020

सावन पर एक गीत

गीत -
गरज रहे हैं, श्यामल से घन
 फिर से सावन आया

मोर नाचते पंख पसारे
मुग्ध मोरनी तकती,
कूक-कूक वन को गुंजाती,
कोकिल कभी न थकती।
पुलकित है जैसे सारा वन
फिर से सावन आया।

गरज-गरजकर घुमड़ें बादल,
प्रिया हृदय भय भरते
देख तड़ित की कौंध प्रिया के
रह-रह प्राण सिहरते।
और गात में होता कंपन
फिर से सावन आया।

बूँदों की छमछम में जैसे
प्रकृति मगन हो नाचे
मेघों की पाती को धरती
सकुच-सकुच कर बाँचे
धन्य-धरा का सारा जीवन 
फिर से सावन आया।

राग मेघ मल्हार सुनाए
कजरी कोई गाए,
बूँदों की छमछम से प्रेरित
कोई नाच दिखाए।
बना हुआ है आज इंद्र मन
 फिर से सावन आया

खुश हैं कृषक, खेत भी खुश हैं,
खुश है यह जग सारा।
वरदानी इस ऋतु का जग को
सचमुच बड़ा सहारा।
देने जड़-चेतन को जीवन
फिर से सावन आया।
 -  दिनेश गौतम

Wednesday, 8 July 2020

भीग जाने का मौसम

भीग जाने का मौसम

बारिश हो रही है
अनवरत, अबाध।
भीग रही है धरती
भीतर तक
पैठ रहा है पानी।
तृप्त हो रही है धरती
अपनी आँखें मूँदे।

पेड़ों ने झुका दिए हैं सर
बारिश के झकोरों के सामने हथियार डालकर।

घर की खिड़की पर
काँच के इस पार खड़े होकर
बारिश को निहारना
कितना सुखद है!

टूट रही हैं
मन की कठोर परतें,
तुम्हारा ख़याल
मन के भीतर तक पहुँच रहा है।
बारिश और तुम्हारा ख़याल
कितने अभिन्न हैं
एक दूसरे से।
गर्म कॉफी का प्याला
हाथों में लिए मैं
देख रहा हूँ
भिगा रही है बारिश
धरती की देह
और तुम्हारा ख़याल मन को।

हो रहा है सब कुछ
मन के भीतर
भीना-भीना सा।
भीग रहा है मन
भीग जाने का मौसम है यह।
          - दिनेश गौतम
  

Monday, 25 May 2020

उस रात .....



झरे हुए पत्तों में
बिखरा पड़ा है
गुज़रा हुआ वसंत
सिसकता।
नहर किनारे के उस फ़्लैट से
निकलकर
बिखर गया है काला धुआँ
हमारे रिश्तों के आर -पार तक।
कॉलोनी के मकान
सिर झुकाए खड़े हैं।
कभी इन मकानों ने
हमें साथ-साथ देखा था।

याद है मुझे वह सड़क
जो मुड़ जाती थी
गुलमोहर के दाहिने से
तुम्हारे फ़्लैट की ओर।
उस रात बिखरी थी
मटमैली चाँदनी
उस सड़क पर
और
पास के मंदिर से लेकर
तुम्हारे घर तक।

उसी रात मेरे साथ
मंदिर से लेकर
गुलमोहर तक
चहलकदमी करते हुए
तुमने सुनाया था
अपना फ़ैसला ।
जैसे एक-एक लफ्ज़
पढ़ा गया हो
किसी मुकद्दमे के फ़ैसले सा।
मेरे अरमानों की
चिन्दियाँ उड़ रही थीं,
तुम्हारे शब्द-शब्द
मेरे ख़िलाफ़ जा रहे थे।
देर तक
सिर्फ़ और सिर्फ़
सुनता रहा था मैं उन नश्तर-लफ़्ज़ों को।

मुझे पता था
तुम आई थीं
सिर्फ़ स्क्रिप्ट पढ़ने
जैसा कि वह
शामिल हुआ करता है
तुम्हारे काम में।
बहुत सोच-समझकर
तैयार की हुई स्क्रिप्ट-
बहाने, तर्क, मजबूरी, आश्वासन
और न जाने क्या-क्या

और फिर
मेरे लिए वसंत
सिर्फ़ झरे हुए पत्तों
और
सूखी हुई डालियों भर का
नाम होकर रह गया था।

अलगाव के
चरणबद्ध और
सोचे समझे क़दम
उठते रहे
तुम्हारी ओर से,
ईंट-ईंट कर
गिराती रहीं तुम
मेरे ख़्वाबों के महल
जैसे शगल हो यह
तुम्हारा।
अप्रत्याशित था सब कुछ
मेरे लिए
और
पूर्व नियोजित था सब कुछ
तुम्हारे लिए।
मेरे दोनों हाथ
जुड़े रहे
याचना में।

फिर
प्रार्थनाओं के अबोध शिशु
एक -एक कर
मारे तुमने
कुचल-कुचलकर

आख़िर में
संवेदनाओं की लाशें
बिछी हुई थीं
मेरे ठिकाने-
हरे काँच की
उस इमारत से लेकर
नहर किनारे के
तुम्हारे फ़्लैट तक
पूरी सड़क भर।

रौंदती हुई
संवेदनाओं की लाशें,
उनसे मुँह फेरे
निकल गईं तुम
अपने अहंकार की
बग्घी पर सवार ।

रात सिसकती रही,
भावनाएँ
पछाड़ खाकर
गिरती रहीं,
मचा रहा कोहराम
हृदय की बस्ती में ।

आज फिर
उस रात की बरसी है न ?
     
                       - दिनेश गौतम

Monday, 20 April 2020

तुम्हारा नाम

सुनो !
मेरी साँसों में
घुल गया है
नाम तुम्हारा,
मेरी धड़कनों में
चस्पा हैं
तुम्हारे नाम के
एक-एक अक्षर।
हृदय में गूँज रही है
अब भी
तुम्हारी नाम धुन
निरंतर,
अविरल,
अबाध।
हर धड़कन के साथ
और भी स्पष्ट निकलती है
तुम्हारे नाम की ध्वनि

स्मृतियों के जल महल में
रह-रह कर चमकती हैं
तुम्हारी छवियाँ।

तुम्हारा प्रेम
कभी संदेह था
साथ मेरे,
साकार थीं तुम
मेरे साथ
प्रेम के भीतर।
अब
 देह नहीं है तुम्हारी।
मेरे साथ,
देह तो निकलकर चली गई
कहीं और।

मेरे पास बच गया है
केवल प्रेम।
सात्विक,
निर्गुण,
निराकार।
पहले से कहीं उजला,
पहले से कहीं अधिक निर्मल
और बहुत पावन।

सुनो !
यह निराकार बोलता है
मेरे भीतर
सातों सुर में
बोलते हैं अब भी
तुम्हारे नाम के
ढाई अक्षर
मेरी हर धड़कन में।
  दिनेश गौतम

Sunday, 15 March 2020

सूख गया प्रेम वृक्ष

दो हज़ार पंद्रह से मेरा ब्लॉग तकनीकी कारणों से बंद पड़ा था। आज मेरे बेटे प्रणय ने आख़िर वह समस्या हल कर दी और यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि मैंने फिर से उसमें अपनी कविताएँ पोस्ट करना प्रारंभ कर दिया है। शुरुआत एक गीत से - आप सबकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।



सूख गया प्रेम वृक्ष, पत्र सब झरे
सींच रहे ठूँठ को, नयन जल भरे...

जाने क्यों दीपों के भाग लिखे अंधड़ ही
और नए उपवन की, किस्मत में पतझड़ ही
मधुमासी स्वप्न सभी, रह गए धरे.......

लुटी हुई पूँजी है, भोले विश्वासों की
जीवन अब शेष कथा श्वासों -निश्वासों की
कौन यहाँ अमृत की, कामना करे....

नीरवता पसरी है मीलों तक अंतर में,
खिले हुए नागफनी प्राणों के बंजर में
गीतों के निर्झर भी सूख सब मरे.....

नदी के किनारों से, बिगड़े संबंध यहाँ
लहरों की सुने कौन, बहरे तटबंध यहाँ
पत्थर की नौकाएँ, कौन फिर वरे..
              -  दिनेश गौतम

Sunday, 22 February 2015

यादें मरती नहीं हैं----

यादें मरती नहीं हैं

तुम्हारी यादों के साथ- साथ
चलता है झील का किनारा,
जहाँ किनारे खड़े
पेड़ों के साए में
चले थे हम-तुम
साथ-साथ,
झील के दूसरे छोर तक।

तुम्हें याद है या नहीं
तुम्हीं ने आगे बढ़कर
मेरे हाथों में अपना हाथ
डाल दिया था
और कहा था- ‘‘ ये पक्का है,
और इस जनम में तो
छूटने से रहा।’’

बस उसी पल से
हवा में फैल गई थी
तुम्हारे प्यार की खुशबू
और महकाती रही
मेरे मन-प्राणों को
तब से अब तक
और मैंने भी तुम्हें
अपनी रुह में टाँक लिया था।

हैरत में हूँ  मैं
कि झटक दिया है तुमने
अब वही हाथ,
जबकि इसी जनम के
सात बरस भी पूरे नहीं हो पाए।
सतरंगी सपनों का ‘स्पेक्ट्रम’
घुमा दिया  तुमने,
और सब कुछ अचानक
सफेद हो गया।

कोई रंग नहीं जीवन में अब
इस सफेद रंग के सिवा।
हवाओं की खुशबू
कहीं खो गई।
खींच दी तुमने लकीर
अचानक
मेरे और अपने बीच,
और कह दिया-
‘‘इस पार आने से
तुम पत्थर के हो जाओगे।’’
मुझे लगता है कि
तुम ही बदल गईं
किसी पत्थर में
किसी तिलस्म ने
छीन ली मेरी राजकुमारी।

मेरी नींदें
भटकती हैं आँखों से दूर,
यहाँ अब रतजगे रहते हैं
पूछते हैं जो मुझसे-
‘‘क्या हुआ
हाथों में दिए गए हाथ का?
क्या यह जन्म ख़त्म हो चुका है?’’

‘दलपत सागर’ -वह झील,
क्यूँ बदल गई है
पोखर में?
सूख रही है झील,
मर रहा है पानी,
पर
यादें हैं कि मरती नहीं हैं।
             
                     -  दिनेश गौतम


 27. 01.2015                 फतेहसागर झील, उदयपुर।