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Wednesday, 14 November 2012

दीप जलाना होगा...



घना अंधेरा है अब कोई दीप जलाना होगा,
दूर सवेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।

कलह - क्लेश की ज्वाला जलती, दिखती है घर-घर में,
जाग रही शैतानी ताकत लोगों के अंतर में।
तम ने घेरा है अब कोई दीप जलाना होगा...

अंतःद्वंद्वों के बीहड़ में भटक रहा हर मन है,
एक व्यक्ति के कई रूप हैं, दुहरा हर जीवन है।
अजब ये फेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।....

खंडित एक पत्थर रक्खा है, मंदिर के कोने में,
संशय सा होता है अब तो ईश्वर के होने में।
संदेह घनेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।...

अपने कंधे पर हों जैसे अपना ही शव लादे,
लुटे - लुटे से घूम रहे हम पीड़ा के शहजा़दे।
ये वक्त लुटेरा है अब कोइ दीप जलाना होगा।...

सपनों की उजड़ी बस्ती में भटकें हम दीवाने,
ढही हुई है दरो-दीवारें सभी तरफ वीराने।
उजड़ा ये डेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।...

                                                                   - दिनेश गौतम


19 comments:

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...



आदरणीय दिनेश गौतम जी
बहुत सुंदर गीत का सृजन हुआ है आपकी लेखनी से …

आपकी काव्य रचनाओं ने मुझे सदैव आनंदित किया है …
आभार एवं शुभकामनाएं !

dinesh gautam said...

धन्यवाद राजेंद्र जी, आपको भी दीप पर्व की मंगलकामनाएँ।

मेरा मन पंछी सा said...

बहुत ही बेहतरीन रचना है ...
आपको सहपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ...
:-)

dinesh gautam said...

धन्यवाद मेरा श्रम सार्थक हुआ। आपको भी दीपावली की अनेकानेक शुभकामनाएँ रीना जी!

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) said...

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धन वैभव दें लक्ष्मी , सरस्वती दें ज्ञान ।
गणपति जी संकट हरें,मिले नेह सम्मान ।।
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दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं
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अरुण कुमार निगम एवं निगम परिवार
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shalini rastogi said...

बहुत सुन्दर संदेशप्रद कविता .... वास्तव में ऐसे ही दीप को प्रज्ज्वलित करने की आवश्यकता है|

मनोज कुमार said...

बदलते परिवेश की आहट को बहुत खूबी से इस रचना में आपने समेटा है।
बधाई!

Kailash Sharma said...

अपने कंधे पर हों जैसे अपना ही शव लादे,
लुटे - लुटे से घूम रहे हम पीड़ा के शहजा़दे।
ये वक्त लुटेरा है अब कोइ दीप जलाना होगा।...

....बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...

dinesh gautam said...

धन्यवाद अरुण जी, शालिनी जी, मनोज जी और कैलाश जी। मेरी रचना आपने पसंद की इसके लिए आभारी हूं।

आनन्द विक्रम त्रिपाठी said...

खंडित एक पत्थर रक्खा है, मंदिर के कोने में,
संशय सा होता है अब तो ईश्वर के होने में।
संदेह घनेरा है अब कोई दीप जलाना होगा।..........बहुत बढियां , सुंदर |

Shikha Kaushik said...

bahut sundar v sarthak prastuti .aabhar
हम हिंदी चिट्ठाकार हैं

दिगम्बर नासवा said...

कलह - क्लेश की ज्वाला जलती, दिखती है घर-घर में,
जाग रही शैतानी ताकत लोगों के अंतर में।
तम ने घेरा है अब कोई दीप जलाना होगा...

मधुर लेकिन आज का सच ... हाई काव्य की व्याख्या है .... बहुत ही लाजवाब गीत है गौतम जी ...

dinesh gautam said...

धन्यवाद आनंद विक्रम जी, शिखा कौशिक जी और दिगंबर नासवा जी, मेरी पोस्ट पर पहुंचने के लिए आभार।

Udan Tashtari said...

क्या बात है...वाह!! शुभकामनाएँ.

dinesh gautam said...

धन्यवाद उड़नतश्तरी जी।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...



दिनेश गौतम जी
नमस्कार !

आशा है सपरिवार स्वस्थ सानंद हैं
नई पोस्ट बदले हुए बहुत समय हो गया है …
आपकी प्रतीक्षा है सारे हिंदी ब्लॉगजगत को …
:)

नव वर्ष की अग्रिम शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार

Unknown said...

आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ ....मन आनंदित हो गया .....

dinesh gautam said...

धन्यवाद शिखा जी, राजेन्द्र जी। तकनीकी गड़बडि़यों के चलते मेरी नई रचना पोस्ट नहीं हो पा रही है उम्मीद है कि जन्द ही इसका कोई हल निकल आएगा।

Rupendra raj said...

अपने कंधे पर हों जैसे अपना ही शव लादे,
लुटे - लुटे से घूम रहे हम पीड़ा के शहजा़दे।
ये वक्त लुटेरा है अब कोइ दीप जलाना होगा।.
अप्रतिम गीत का बहुत ही सुंदर बंद.