किस तरह से दब गए हैं स्वर यहाँ,
नोंच कर फेंके गए हैं पर यहाँ।
दाँत के नीचे दबेंगी उँगलियाँ,
है उगी सरसों हथेली पर यहाँ।
'टोपियाँ' कुछ खुश दिखीं इस बात पर,
कुछ 'किताबें' बन गईं अनुचर यहाँ।
धीमे-धीमे भीगता है मन कहीं,
रिस रही है प्यार की गागर यहाँ।
मेमना भारी न पड़ जाए कहीं,
शेर को अब लग रहा है डर यहाँ।
एक दिन गूँगी ज़ुबानें गाएँगी,
बात फैली है यही घर-घर यहाँ।
तन रही हैं धीरे -धीरे मुट्ठियाँ,
मुट्ठियों में बंद हैं पत्थर यहाँ
दिनेश गौतम
28 comments:
बहुत खूबसूरत गज़ल..........
किस तरह से दब गए हैं स्वर यहाँ,
नोंच कर फेंके गए हैं पर यहाँ।
मतले के इस एक शेर के लिए बार-बार वाह-वाह !
aapki panktiyon me bhawnao ka saagar basa hai, bahut khub likha hai aapne, bus ko dil ko chhu si gayi...
कमाल का बिम्ब ..रोक सा लेता है..
आप आयें --
मेहनत सफल |
शुक्रवारीय चर्चा मंच
charchamanch.blogspot.com
word varification ke karan tippani nahin kar pata hun
kyonki nahin padh pata hun
बहुत सुन्दर....
तन रही हैं धीरे -धीरे मुट्ठियाँ,
मुट्ठियों में बंद हैं पत्थर यहाँ!
छिपे आक्रोश को सुन्दर शब्द दिए !
तन रही हैं धीरे -धीरे मुट्ठियाँ,
मुट्ठियों में बंद हैं पत्थर यहाँ
मुखर अभिव्यक्ति ,मन का रोष सार्थकता के प्रति उद्वेलित है ... बहुत खूब बधाईयाँ जी /
bahut sundar gazal hai ,pahli baar blog par aana hua ,khushi huee aakr :)
एक दिन गूँगी ज़ुबानें गाएँगी,
बात फैली है यही घर-घर यहाँ।
तन रही हैं धीरे -धीरे मुट्ठियाँ,
मुट्ठियों में बंद हैं पत्थर यहाँ
वाह ...बहुत ही बढिया।
तांत्रिक दर्द की सहज अभिव्यक्ति .
लोक तांत्रिक दर्द की सहज अभिव्यक्ति .
मेमना भारी न पड़ जाए कहीं,
शेर को अब लग रहा है डर यहाँ। baht badiya
bahut badhiya gajal...
har sher lajavab hai:-)
मेमना भारी न पड़ जाए कहीं,
शेर को अब लग रहा है डर यहाँ।
बहुत ही बढिया ।
दिनेश जी आप से गुजारिश है की वर्ड वेरिफिकेशन को डिसेबल रखें ताकि व्यर्थ के झंझंट से बचा जा सके , दूसरा आपकी प्रोफाइल में एक ही नाम के दो ब्लॉग है पहले में कोई पोस्ट नहीं है इसलिए उसको डिस्प्ले लिस्ट म न रखें ताकि आगंतुकों को असुविधा न हो
♥
आदरणीय दिनेश गौतम जी
सस्नेहाभिवादन !
बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने -
टोपियाँ' कुछ खुश दिखीं इस बात पर,
कुछ 'किताबें' बन गईं अनुचर यहाँ।
मेमना भारी न पड़ जाए कहीं,
शेर को अब लग रहा है डर यहाँ।
एक दिन गूँगी ज़ुबानें गाएँगी,
बात फैली है यही घर-घर यहाँ।
तन रही हैं धीरे -धीरे मुट्ठियाँ,
मुट्ठियों में बंद हैं पत्थर यहाँ
बढ़िया अश्'आर हैं … मुबारकबाद !
मंगलकामनाओं सहित…
वाह! वाह! वाह! दिनेश भाई!
क्या शानदार ग़ज़ल कही है.... बहुत खूब...
सादर बधाई स्वीकारें.....
बेहद सुंदर और सधी हुई ग़ज़ल लगी। प्रासंगिक भी
wwah! bahut khub,main ne aaj hi blog bnaya hai ,aap saadar aamntrit hai
वर्तमान विसंगतियों को शब्दों के कटाक्ष से चित्रित कर है हमारे सामने ......... दिनेश जी बहुत बहुत बधाई सच्ची गजल के लिए .......
किस तरह से दब गए हैं स्वर यहाँ,
नोंच कर फेंके गए हैं पर यहाँ।
bahut badhiya gazal..vah
मेमना भारी न पड़ जाए कहीं,
शेर को अब लग रहा है डर यहाँ.....
वाह,ग़ज़ब का शेर है.
पहली बार आपको पढ़ा,अच्छी लगी आपकी ग़ज़ल,दिनेश जी.
मेमना भारी न पड़ जाए कहीं,
शेर को अब लग रहा है डर यहाँ।... अन्याय की हद ने मेमने को है सजग बनाया , उसके स्वाभिमान की चाल उठे तो शेर डरेगा ही
दाँत के नीचे दबेंगी उँगलियाँ,
है उगी सरसों हथेली पर यहाँ
Subhan Allah...Behtariin
Neeraj
वाह...वाह....बहुत खूब दिनेश जी ...
बिलकुल नए अंदाज़ में शेर कहे आपने .....
मेमना भारी न पड़ जाए कहीं,
शेर को अब लग रहा है डर यहाँ।
काश ऐसा हो ....:))
एक दिन गूँगी ज़ुबानें गाएँगी,
बात फैली है यही घर-घर यहाँ।
सच....?
बहुत सुन्दर रचना ...
बधाइयाँ
कभी मेरे ब्लॉग पर भी तशरीफ लाइए...
तन रही हैं धीरे -धीरे मुट्ठियाँ,
मुट्ठियों में बंद हैं पत्थर यहाँ
वाह क्या खूब कहा है.हर शेर लाजबाब.
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