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Monday 25 May 2020

उस रात .....



झरे हुए पत्तों में
बिखरा पड़ा है
गुज़रा हुआ वसंत
सिसकता।
नहर किनारे के उस फ़्लैट से
निकलकर
बिखर गया है काला धुआँ
हमारे रिश्तों के आर -पार तक।
कॉलोनी के मकान
सिर झुकाए खड़े हैं।
कभी इन मकानों ने
हमें साथ-साथ देखा था।

याद है मुझे वह सड़क
जो मुड़ जाती थी
गुलमोहर के दाहिने से
तुम्हारे फ़्लैट की ओर।
उस रात बिखरी थी
मटमैली चाँदनी
उस सड़क पर
और
पास के मंदिर से लेकर
तुम्हारे घर तक।

उसी रात मेरे साथ
मंदिर से लेकर
गुलमोहर तक
चहलकदमी करते हुए
तुमने सुनाया था
अपना फ़ैसला ।
जैसे एक-एक लफ्ज़
पढ़ा गया हो
किसी मुकद्दमे के फ़ैसले सा।
मेरे अरमानों की
चिन्दियाँ उड़ रही थीं,
तुम्हारे शब्द-शब्द
मेरे ख़िलाफ़ जा रहे थे।
देर तक
सिर्फ़ और सिर्फ़
सुनता रहा था मैं उन नश्तर-लफ़्ज़ों को।

मुझे पता था
तुम आई थीं
सिर्फ़ स्क्रिप्ट पढ़ने
जैसा कि वह
शामिल हुआ करता है
तुम्हारे काम में।
बहुत सोच-समझकर
तैयार की हुई स्क्रिप्ट-
बहाने, तर्क, मजबूरी, आश्वासन
और न जाने क्या-क्या

और फिर
मेरे लिए वसंत
सिर्फ़ झरे हुए पत्तों
और
सूखी हुई डालियों भर का
नाम होकर रह गया था।

अलगाव के
चरणबद्ध और
सोचे समझे क़दम
उठते रहे
तुम्हारी ओर से,
ईंट-ईंट कर
गिराती रहीं तुम
मेरे ख़्वाबों के महल
जैसे शगल हो यह
तुम्हारा।
अप्रत्याशित था सब कुछ
मेरे लिए
और
पूर्व नियोजित था सब कुछ
तुम्हारे लिए।
मेरे दोनों हाथ
जुड़े रहे
याचना में।

फिर
प्रार्थनाओं के अबोध शिशु
एक -एक कर
मारे तुमने
कुचल-कुचलकर

आख़िर में
संवेदनाओं की लाशें
बिछी हुई थीं
मेरे ठिकाने-
हरे काँच की
उस इमारत से लेकर
नहर किनारे के
तुम्हारे फ़्लैट तक
पूरी सड़क भर।

रौंदती हुई
संवेदनाओं की लाशें,
उनसे मुँह फेरे
निकल गईं तुम
अपने अहंकार की
बग्घी पर सवार ।

रात सिसकती रही,
भावनाएँ
पछाड़ खाकर
गिरती रहीं,
मचा रहा कोहराम
हृदय की बस्ती में ।

आज फिर
उस रात की बरसी है न ?
     
                       - दिनेश गौतम

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