तब
जब कागज़ पर
उतर नहीं सका था कुछ,
मैने हाथों में
थाम ली थी बाँसुरी
और
देर तक
घोलता रहा था
दिल का दर्द
हवाओं में।
तुम्हारे
बदल जाने का
गीत था वह।
मेरे जज़्बात
तार-तार होकर
उड़ने लगे थे फि़ज़ाओं में
और पूरे माहौल में
एक खामोश ग़मगीनी छा गई थी।
जाने कब तक
जेठ की नदिया सी
दो पतली धारें
मेरी आँखों की कोरों से निकल
उतरती रही थीं नीचे।
चाँदनी
भीगकर भारी हो चली थी,
और
रात की सफेदी में
एक कि़स्म का
बहाव था धीमा-धीमा
पर मन के भीतर
उतना ही ठहराव,
जड़वत था सब कुछ
मन के भीतर ।
न कहीं कंपन,
न कोई हलचल
पर फिर भी
इर्द गिर्द उसके
जाने क्योँ
मंडराती रही थीं
भावनाएँ
तुम्हारे लिए
बहुत सा प्यार लेकर।
तुम्हारे बदल जाने के बाद भी।
- दिनेश गौतम