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Sunday 20 May 2012

रात...


कैसी ये मतवाली रात,
चाँद सितारों वाली रात।

कितने राज़ छुपाए बैठी,
बनकर भोली-भाली रात।

कभी लगी ये अमृत जैसी,
कभी ज़हर की प्याली रात।

बिलख रहे हैं भूखे बच्चे,
माँ की खातिर काली रात।

बँगला-गाड़ी पास है जिनके,
उनके लिए दीवाली रात।

लहू जिगर का माँगे हमसे,
बनकर एक सवाली रात।

फुटपाथों पर जब हम सोए,
लगी हमें भी गाली रात।

मत पूछो दिन कैसे बीता,
कैसे, कहाँ बिता ली रात?

दुख ने दिन को गोद ले लिया,
पीड़ाओं ने पाली रात।

दिवस बनाया पर न भरा मन,
‘उसने’ खूब बना ली रात।

                                    - दिनेश गौतम

Tuesday 15 May 2012

भीगता रहा मन...


(आज पेश है मेरे काव्य संग्रह ‘सपनों के हंस’ से एक छंदमुक्त प्रेम कविता।)

रात
तुम्हारी कल्पना
बर्फ की तरह
पिघलती रही
सपनों की पहाडि़यों से,
निःशब्द
बहती रही
एक हिम नदी
मन के
इस छोर से उस छोर तक
और
धीमे-धीमे
भीगता रहा मन
सारी रात।
                   - दिनेश गौतम